Friday, 24 August 2007

वो मेरा...


मैंने पत्तों को भी रंग बदलते देखा है
'क्लोरोफिल' ने छोड़ा है बचपन का साथ
सारे पत्तों के बीच
मैंने पाया है इक पीत पत्ता
जिसे ना लगेगा वक़्त
अब टूटकर गिर जाने में...!


गुलमोहर की लालिमा मैं भुलाये नहीं भूलता
वो उसका बादलों-सा घिर जाना
वो उसका शनै:- शनै: प्रेम बरसाना
ओ अपनी छांव में छतरी-सा बन जाना,
फिर पसरते देखा है उसे
सिकुड़कर- कुम्हलाकर चादरों की मानिंद !


मीनार की तरह काश मैं अटल होता
क्यूँ भटक गया था पैदल चलकर
मृत्युदंश का लेकर अभिशाप
क्यों ना खुद ढह गया था
... और कवित्व तक को झकझोरकर
किया हर विचार नेस्तनाबूत !


ना टूटने का सबब था, ना मिटने का शऊर
ना कोई आह अब देती है दस्तक
पर भुलाये नहीं भूलता कभी
आह हो वो पत्तों की, या हो गुल का बिखरना
हर ओर से मेरी छवि मुझे दिखी है तुझमें
वो तेरा शिथिल होकर ढहना हो
या कि फिर कोई बाह्य आघात !



-"प्रसून"

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