Sunday, 19 August 2007
कर्ज़दार हूँ
और जब वक़्त गुज़रते गए
खुद से ही बचाकर अपना साया
तब भी बचा ना सका मैं
इक शय से भी अपना दामन
मुद्दतों से मेरी सृजनात्मकता
मानो ठहर-सी गयी
ठहराव ये ना जाने क्यों
प्रेरणा था किसी की मौजूदगी की !
है ये वो आत्मशक्ति, पर वही प्रेरणा
हो जाती थी जिसके लिए बेचैन
रह-रहकर खुद मेरी रचनात्मकता
मेरे शब्द-संभाव्य पर फिर किसी की जीत;
यही 'तुम्हारे' प्रेम का मूल है !
तेरी ही संगति का सब
है ये सपनों का महल
सजाया है जिसे मेरे नयन ने
तुम्हारी ही बरौनियों की इन्टें जोड़कर !
मैं तेरे हर ख्वाब को फिर
सींचा क्यों ना करूं
अपने ही शब्द-अश्रु लेकर,
खोकर तुम्हारी पलकों की छांव में !
शायद इसलिये,
ज्यों-ज्यों सरकते हैं
कम्पकम्पाते मेरे बदन पे
तेरे वे दो मदमस्त हाथ
इक रंग चढ़ता चला जाता है
मेरे मन-मंदिर की हर दीवार पर !
मेरी परछाईं में ना ढूँढो
मेरी ही तस्वीर को तुम
'ग़र सको तो बाँट आओ
हर गली, हर हाट में
मेरी नज़रों वाली वो दिव्य दृष्टि
दिखे ना जिसमे सिर्फ रुप मेरा,
चाहता है क्योंकि मेरा प्यार
खो जाना- समंदर-सी व्यापकता में
लघुता में, उच्चता में
हर छद्म शिखर की तुच्छता में !
सो, प्रेम-सरीखी किसी भावना को
इस कदर ना पोषित करो तुम
छुपा सके जो मेरी कमियों को
मेरी ही प्रेमी आंखों से,
मेरे प्यार का कोई विकार !
छोड़ दिया होता मैं अब तो
शब्द-महल का निर्माण करना
पर बोध होता है जब इसके वैचित्र्य का
और अंतरात्मा के शैथिल्य पर
बजता है उत्तेजना- उन्माद का डंका
पकड़कर फिर तेरा ही हाथ
और उन्हीं शब्दों की माँगकर भिक्षा
आ जाता हूँ प्रेम-नगर की चौखट पे मैं !
इसलिये भी
क्योंकि सिर्फ सृजन नहीं है ये मेरा
है ये वस्तुतः मेरे प्रेम की गुजारिश,
होगा इसकी व्यापकता में जितना तेरा साथ
होते चले जायेंगे मेरे शब्द
प्रेमाध्याय में उतने ही कर्ज़दार तेरे !
-'प्रसून'
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1 comment:
BHUT KHOOB..ACHA LAGA APKO PADHNA..
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