Monday 17 September 2007

ग़ज़ल

कभी सिसकती आवाज़, कभी कंपकंपाती आवाज़ ।
कहीँ बज रहा है हर पल नया- नया साज़ ।।
गैरों को कैसे कहें कि बेबर्दाश्त हो गया है ये दर्द
जब बेटियों तक का हो गया है दिलफेंक मिज़ाज ।
जाने क्यूँ रखते हैं अब भी जीने की ख्वाहिश
न घर में कोई है, ना बाहर ही समाज ।
शराफ़त के नीचे यूं दब गयी है ज़िन्दगी
दिख रहा है हर तरफ़ बस शरीफ़ों का अंदाज़ ।
ख़तम न हुई मगर फिर भी जीने की तमन्ना
जाने किस पाश में 'प्रसून' फँस गए हैं आज !
- "प्रसून"

1 comment:

रंजू भाटिया said...

:):) किस पाश में 'प्रसून' फँस गए हैं :)