Sunday, 7 September 2008

तुम


देखो तो मेरी दीवानगी,
हर तस्वीर में अब मैं
ढूँढने लगा हूँ तुम्हें
तुम्हें महसूस करता हूँ
अपने सिरहाने, अपने मन के करीब।

देखो तो मेरी दीवानगी,
अपनी खिड़की की छिटकनी पर
अपनी आंखों के सामने
टांग दी है इक तस्वीर
दुनिया जिसे 'सरस्वती' मानती है
और यही अब पराकाष्ठा है
मेरी कथित नास्तिकता की।

देखो तो मेरी दीवानगी,
तुम्हारे हर ख्वाब को
देखती हैं मेरी आँखें
तेरी सारी इच्छाओं से
पटी पड़ी हैं मेरी स्वप्निल रातें
क्यूंकि सार्थकता है मेरे 'जगने' की
तेरे इन नायाब सपनो से।

देखो तो मेरी दीवानगी,
ख़ुद को कितना गुनहगार पाता हूँ
तेरी निश्छल आंखों के प्रांगण में
जब आता हूँ वहाँ मचलकर
और मेरा आवारा मन
अपेक्षाएं रखने लगता है तुमसे
किसी असीम उत्तेजना की।

देखो तो मेरी दीवानगी,
तुम्हें हर पल खोजता हूँ
तुम्हारी ही तस्वीर में
उतरती हैं तेरी आवाजें
मेरी धडकनों की गहराई में
तेरी ही आवाजों से छनकर
और पाता हूँ तुम्हें मैं

तुम्हारे भीतर ही निराकार रूप में
बरक़रार रह जाता है मेरा संशय फ़िर
'साकार'- 'निराकार' की मौजूदगी को लेकर।

देखो तो मेरी दीवानगी,
तुम क्यूं नहीं आ पाती
प्रत्यक्ष रूप में मेरे सामने,
क्यूं नहीं मैं पाता तुम्हें
अपनी निष्कपट पलकों के पीछे!

देखो तो मेरी दीवानगी,
जो खींचता हूँ मैं लकीरों को
लिखता हूँ किस-किसका नाम
अपनी 'अनामिका' ऊँगली से
शांत पानी की सतह पर...!


- "प्रसून"

Thursday, 24 January 2008

ग़ज़ल


अभी वो कमसिन है, अभी उसका उभरना है बाक़ी।
थोड़ा निखार आया है उसपे, थोड़ा और निखरना है बाक़ी॥

राह-ए-इश्क़ की ठोकरें वो सुनता आया है ज़माने से
इस बेज़ार रहगुज़र पे दिल उसका मचलना है बाक़ी।

माना कि कम है ये ज़िन्दगी मुहब्बत की खातिर
तूफाँ-ए-प्यार के लिए इक चिंगारी का निकलना है बाक़ी ।

जाने क्यूँ ढूँढते हैं चराग लेकर अपनी मुहब्बत को
गम-ए-इश्क़ में दिल के टुकड़ों का बिखरना है बाक़ी।

कल महफ़िल में बेहिसाब पी ली सोहबत के नाते
आज किसी फ़रमाइश पर 'प्रसून' संभलना है बाक़ी।


- "प्रसून"

Wednesday, 23 January 2008

मैं जब- जब...


मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।

कैसे किया तुमने कभी मुझसे मुहब्बत का दावा,
कैसे सदियों से मुझे तुम झुठलाती रही हो !
मेरे लिए तेरी मुहब्बत का हसीन-सा तोहफ़ा है,
मैं आँसू पीता रहा और तुम इठलाती रही हो ।


मैं समझ नहीं पाता मेरे लिए तेरी मुहब्बत को
तेरी मुहब्बत में कोई दर्द हो या कोई भाव ना हो,
पर तुम किसी से प्रेम करने का कोई वादा न करना
मैं दीवाना बुझा लूँगा, मेरे भीतर अब जो भी अगन रही,

मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।

क़ायल हो गे मैं तेरी मुहब्बत का रुप देखकर,
फिर क्यूँ न तुझे अपनी पाक नज़रों पर रखूँ !
चलो, माना ये बेरुखी हलाहल है मुहब्बत का,
तो क्यूँ न इसे मैं जीते- जी बेबाक चखूँ !

मैं टूटा तारा, अपनी रोशनी कभी न खोएगा
और मेरा मायूस मन बेबसी में भी न रोएगा,
पर खेलता रहा मैं जब- जब अपने गर्दिश के तारों संग,
तेरी क़िस्मत के सितारों की तब भी बनी लगन रही,

मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।

- "प्रसून"

Monday, 1 October 2007

ग़ज़ल


अपनों की करनेवाली इबादत नहीं मिलती !
वैसे भी अब ऐसी शराफ़त नहीं मिलती !!


कुछ करने की सोचें कैसे उनकी खातिर
बेगम से ऐसी इजाज़त नहीं मिलती !


फ़ीकी हँसी दिखाकर याद कर लेते हैं बचपन
बचपन में जो की, शरारत नहीं मिलती !


उन दिनों होते रहे थे कितने ही गिले- शिकवे
अब करने के लिए कोई शिकायत नहीं मिलती !


रिश्तेदारी से बचके पहुँचे हैं इस मकाम पे
जहाँ चादर- ए- प्यार की हिफाज़त नहीं मिलती !


सिमट गए 'प्रसून' अपने बीवी- बच्चों तक यूँ
कि अपनी छत तक सलामत नहीं मिलती !




- "प्रसून"

Friday, 21 September 2007

क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर ?

साँसें सिसकीं, रोया मन फूट- फूटकर
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !


आज हुई जब दरवाज़े पर दस्तक
लगा, जैसे यहाँ तुम्हीं थी कल तक
यूँ चाहा तो ख़ूब सब कुछ भुलाना
पर भूल न पाया गुज़रा ज़माना,

तब भी लगी तेरी ही आवाज़
टूटा काँच जो हाथ से छूटकर,

जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !

था ये तेरी आंखो का ही जादू
जो कई दफे हुईं साँसें बेक़ाबू
अब ख़तम हुईं सारी हसरतें गोया
मन भी कब से सुदूर शून्य में सोया,


पर थमी नहीं ये धड़कन नाचीज़
हाँ, बिखरा टुकड़ों में दिल टूटकर,
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !

तेरे लौटने की सब आस गयी
जाने तुम कौन- सा बनवास गयी
अब बस रोऊंगा पुराने घाव नोचकर
और बीतेगी ज़िन्दगी तुम्हें सोचकर,

कैसे कहूँ, थी तू ही आबरू मेरी
जिसे ले गयी तुम खुद लूटकर,
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !





- "प्रसून"

Monday, 17 September 2007

ग़ज़ल

कभी सिसकती आवाज़, कभी कंपकंपाती आवाज़ ।
कहीँ बज रहा है हर पल नया- नया साज़ ।।
गैरों को कैसे कहें कि बेबर्दाश्त हो गया है ये दर्द
जब बेटियों तक का हो गया है दिलफेंक मिज़ाज ।
जाने क्यूँ रखते हैं अब भी जीने की ख्वाहिश
न घर में कोई है, ना बाहर ही समाज ।
शराफ़त के नीचे यूं दब गयी है ज़िन्दगी
दिख रहा है हर तरफ़ बस शरीफ़ों का अंदाज़ ।
ख़तम न हुई मगर फिर भी जीने की तमन्ना
जाने किस पाश में 'प्रसून' फँस गए हैं आज !
- "प्रसून"

प्रिय का ख़त आया है

व्याकुल हृदय हमारा
प्रिय का ख़त आया है
कुछ शब्दों ने दिल को छुआ
कुछ ने ख़ूब भरमाया है ।
बेचैनी है ख़त में
कहीँ- कहीँ शिकायत है --
प्रिय, तुम बिन ज़िन्दगी
नहीं कहीँ सलामत है
आ जाओ अब सामने
कि नशा तेरा पोर- पोर में छाया है ।
इस सूनी राह पर
कटता नहीं इक दिन का सफ़र
दिल ने देखकर तुझको
चुन लिया है अपना हमसफ़र
क्यों अब भी ये दूरी प्रिय
इस धूप के सफ़र में मिलती नहीं छाया है !
आज से ही राह तकूंगी
रखना ज़रा ख़याल इसका
न आने पर जो शिकवा होगा
दिल में न रखना मलाल उसका
तेरी बेरुखी ने ही दिलबर
गिला करना मुझको सिखाया है ।
आज अब रात घनी हो चुकी है
कल डाक से ख़त भेजूंगी
अतीत की यादों को हमदम
दिल में मैं सहेजूंगी
मन ने मेरे मुझको फिलवक्त
यही करने को समझाया है --
व्याकुल हृदय हमारा
प्रिय का ख़त आया है !
- "प्रसून"

Sunday, 16 September 2007

तेरा ख़त फिर भी न आया


तेरी याद ने सबको ख़ूब रुलाया,
हाँ, तेरा ख़त फिर भी न आया !


जिस दिन चले गए यहाँ से तुम
हो गया सारा मंज़र ही गुमसुम

देखते रहे थे सब हद -ए- निगाह तक
बस! दादी रोयी थी अपनी आह तक,


कुछ ने तो तेरी तस्वीर देखकर ही
रिश्ते को भी ख़ूब भुनाया,
हाँ, तेरा ख़त फिर भी न आया !


क्या कशिश थी तेरी हर बात में
हँसते थे तुम जब बात- बात में
आज मुस्कराना सबका है दुश्वार
और 'रोना' बन गया हो जैसे खिलवाड़,


तेरी ख़बर की थी सबको ज़रूरत
पर डाकिए ने भी मुँह चिढ़ाया,
हाँ, तेरा ख़त फिर भी न आया !


जाने कहाँ गयी आज तेरी आगोश
ख़ुद में ही हैं सब खामोश
ख़तम हुआ है सबका धीरज
ज़िन्दगी हो गयी हो जैसे नीरस,


तेरी इक झलक को कुछ तो हैं अब भी बेताब
पर ज़ालिम दूरी ने सबको फुसलाया,
हाँ, तेरा ख़त फिर भी न आया !



- "प्रसून"