Friday, 21 September 2007

क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर ?

साँसें सिसकीं, रोया मन फूट- फूटकर
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !


आज हुई जब दरवाज़े पर दस्तक
लगा, जैसे यहाँ तुम्हीं थी कल तक
यूँ चाहा तो ख़ूब सब कुछ भुलाना
पर भूल न पाया गुज़रा ज़माना,

तब भी लगी तेरी ही आवाज़
टूटा काँच जो हाथ से छूटकर,

जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !

था ये तेरी आंखो का ही जादू
जो कई दफे हुईं साँसें बेक़ाबू
अब ख़तम हुईं सारी हसरतें गोया
मन भी कब से सुदूर शून्य में सोया,


पर थमी नहीं ये धड़कन नाचीज़
हाँ, बिखरा टुकड़ों में दिल टूटकर,
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !

तेरे लौटने की सब आस गयी
जाने तुम कौन- सा बनवास गयी
अब बस रोऊंगा पुराने घाव नोचकर
और बीतेगी ज़िन्दगी तुम्हें सोचकर,

कैसे कहूँ, थी तू ही आबरू मेरी
जिसे ले गयी तुम खुद लूटकर,
जाने क्यूँ गयी तुम मुझसे रूठकर !





- "प्रसून"

4 comments:

पार्थ जैन said...

बहुत ही अच्छा लिखा आपने,इसी प्रकार लिखीए,बहुत जल्द आपको ढेर सारे पाठक मिल जाऎंगे,मुझे भी दर्द भरी रचनाऎं बहुत पसंद है,शुभकामनाऎं..

रंजू भाटिया said...

तेरे लौटने की सब आस गयी
जाने तुम कौन- सा बनवास गयी
अब बस रोऊंगा पुराने घाव नोचकर
और बीतेगी ज़िन्दगी तुम्हें सोचकर,

वाह !! क्या बात है ...यह पंक्तियां बहुत ही सुंदर लगी

शिवानी said...

aaj hue jab darwaze par dastak
laga jaise yahan,tumhi thi kal tak
yun chaha to khoob sab kuch bhulana
par bhool na paya guzra zamana ..
ultimate lines.kya likhtey hein aap.bahut hi emotional poem hai.bus isi tarah likhtey rahiyega...badhai...

Unknown said...

BAHUT BAKWAS