मेरी साँसे थम-थम-सी जाती हैं
मेरा अपना जब कहीँ दूर हो जाता है
इक आग का प्रादुर्भाव तभी होता है,
जो मेरे अन्दर सब कुछ कुचल-सा देता है !
दूर कहीँ किसी हाट-बाज़ार में
हमारे हृदय का मोल-भाव होता है
पर दुनिया जिसे रौंदना चाहती है,
बस वही शरीर यहाँ बिकता है !
दूर से आती आवाजें कुछ कहती हैं
और इक नादान सिहरन मुझे छेड़ती हैं
जब मन का रोष घुमड़-घुमड़कर रहता है,
तभी हमारा भरम छिपकर रोता है !
मन की उम्मीदें हो चुकी हैं शापित
मेरा भाव-संग्रह मुझ ही को चिढ़ाता है
मेरा भाव-संग्रह मुझ ही को चिढ़ाता है
हर गुंजायमान थर्राती आवाज़ का अनुमान है,
जैसे मुझ पर कोई दो-चार शब्द लिखता है !
मेरी परछायीँ में इक मूर्तता दिखती है
मेरी बदनामियों में इक एहसास होता है
हर समर्पण-भाव जब रोता है अपना अंजाम,
हर समर्पण-भाव जब रोता है अपना अंजाम,
तभी मुझे समर्पित होने का गुमान होता है !
मासूमियत की छवि यूं तो हर जगह बनती है
पर इसका अंदाजा मुझे कहाँ होता है
शर्म से छिपकर जब कभी देखना चाहूँ,
आईने में मुझे मेरा चेहरा खराब दिखता है !
- "प्रसून"
चलते-चलते :
"रोएँ ना अभी अहले-नज़र हाल पे मेरे,
होना है अभी मुझको खराब और ज़्यादा !"
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