पाकर तेरी मौजूदगी को
थम-थमकर मेरा चलना
तेरी हर शोख अदा पर
तेरी हर शोख अदा पर
मेरा टूट-टूटकर बिखर जाना
निगाहों की कशिश पर तेरी
मचल जन मेरा, फिसल जाना मेरा
पता नहीं, वो क्या था !
बस तेरी इक छुअन पर
मेरे स्वप्न-महलों का बन जाना
मेरी अट्टालिकाओं पर तेरा थिरकना
तब महलों के प्रस्तर का सरक जाना
रह-रहकर वो तेरा मूक स्पर्श...
और बहुमंजिली ख्वाहिश का फिर से संवरना
पता नहीं, वो क्या था !
मेरी मन-माटी पर तेरा आरोहण
और नज़रों का वो बेरहम अनदेखापन
बेईमान मेरी नीची निगाहों का
बार-बार तेरे ही आँचल में स्खलन
बीमार मेरे दिल की बीमार-सी आवाज़
सिसकी भी ना जो बन पायी बेरहम
पता नहीं, वो क्या था !
मैं अजनबी मेरे ही महल में
बेअदब-बेसबब चहल-पहल में
घुट-घुटकर रही जुड़ने की चाह
और नींव की बेबाक उथल-पुथल में
और नींव की बेबाक उथल-पुथल में
सपनों के कारवां का अचानक रुकना
फिर बग़ैर मंज़िल के ही निकल पड़ना
पता नहीं, वो क्या था !
दो पल के लिए मेरी बाहों में आना
और मुझे असंख्य सपने दिखाना
मेरी नादानी के दंश से तेरा साक्षात्कार
प्रेम के बोझ से तुम्हें बलात दबाना
चिनगारियों का मेरी फिर बेदम हो जाना
और तेरे ख्याल पर बस आहें भरना
पता नहीं, वो क्या था !
- "प्रसून"
1 comment:
आपकी हर रचना बहुत भावपूर्ण है । हर रोज़ आना पड़ेगा आपके ब्लाग पर ।
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