Wednesday 8 August 2007

मुहब्बत

खामोश तेरी जुबाँ,
देह और धड़कनों संग
एक बेचैन दरम्यां !

उन होंठों की कशिश,
जिस्म और जाँ में दौड़ती
ये असहनीय तपिश !

गर्म साँसें बदस्तूत जारी हैं,
घिसटती हुई जिन्दगी
अब बस तुम्हारी है !

टूटते-खोते सारे परवाज़,
इसी को इस सफ़र का
सब कहते हैं आगाज़ !

ये डबडबायी आँखें,
खुल गयी हों जैसे
नसों की सारी सलाखें !

उखड़ी-उखड़ी साँसें,
कौन-सा रोग हो गया तुझे
आज अपनी ही जान से ?

- "प्रसून"

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