Saturday 18 August 2007

खो गए रिश्ते


कहाँ गए वो मन के रिश्ते,
कहाँ कहीँ अब दर्द होता है...!

ना समझा था मैं इन राहों को
कि कैसे सबों ने राह थी छोड़ी
मिले थे मुद्दतों बाद तुम भी,
फिर मुझे वहीँ ले चले थे !

तुमने अपना हाथ दिया था
मैंने तो दी थी फीकी हँसी
बातों-ही-बातों में हम,
अतीत-नगर में उड़ पडे थे !


क्षणिक भर थी पर वो नजदीकी
शब्दों से ही फिर दूर हुआ था
तेरे शिखर की जलन थी उभरी,
इरादों में भी द्वेष भरे थे !


तुमने कई शिगूफे छोड़े
यहाँ अन्तर्द्वन्द्व मायूस पड़ा था
तेरी ऊंचाई को भाँपकर,
मन में जाने कितने दर्द खड़े थे !


जिन सपनों की ख़ुशी उभरी थी
वही तो यहाँ बीमार पड़े थे
तुमने थामा था रुख का साथ
यहाँ अश्रु-सागर में द्वंद्व बड़े थे !


मिला तुम्हें सब जो तुमने चाहा
मिल सकता था, वो चाह ना पाए
पर मन-मंदिर और उसका निर्मल कोना,
पाषाणों से पटे पडे थे !


अपने दुखों को तुमने बाँटा
अपनी 'हँसी' को तुमने संजोया
'स्व' से इतर जब बात चली,
आँखें खोलकर ज्यों सोये खड़े थे !


चलते-चलते फिर तुम हँसे थे
इन हथेलियों पे सम्पर्क के नंबर जड़े थे
तब बेबाक अपने क़दमों को बढ़ाया,
हम बेबस तो वहीँ बुत बने थे !


घर पहुँचकर इक आह भरी थी
पसीने ने तेरा 'सम्पर्क' निगला था
हाथों की लकीरों में फिर जितना उलझा,
रिश्तों के मायने सामने पड़े थे...!


-"प्रसून"

2 comments:

शैलेश भारतवासी said...

प्रसून जी,

ब्लॉगिंग की दुनिया में आपका स्वागत है। आपके ब्लॉग की सूचना 'हिन्द-युग्म' पर दी जा रही है। आशा है आप हिन्द-युग्म पढ़ने पधारेंगे।

शोभा said...

कहाँ गए वो रिश्ते ?
बहुत ही प्यारी रचना है । अत्यन्त भावपूर्ण लिखा
है । रस विभोर कर दिया आपने । बधाई स्वीकारें ।