मैं जब भी गुज़रूँगा
तेरे घर की राह से
ना कोई आवाज़ दूंगा
ना मेरी कोई आह निकलेगी वहाँ
डरता है मेरा मन
आना पड़ेगा मेरे मूक बुलावे पे
तुम्हें बेताबी के साथ !
तेरी चारदीवारी के भीतर
महसूस कर तेरी छटपटाहट ही
सुन ली तुमने मेरी पुकार-
ऐसा मैं समझ लूँगा
चाहे तुम्हारी ये छटपटाहट
पनपी हो उच्छ्रुन्खलता की आड़ में
पर मैं तेरी हर कमजोरी
समझने का गुमान रखता हूँ !
ना तेरी बंद खिड़की से
और ना ही कभी मन के दरवाज़े से
दिखेगा तुम्हें मेरा खामोश चेहरा
क्योंकि देखने तो वहाँ हमेशा
जाऊंगा मैं तुम्हें
और खोलोगी जिस दिन तुम
अंतर्मन की आँखें अपनी
दिखेगा तुम्हें बस वही चेहरा
जो होगा तेरे ह्रदय के हर पन्ने पर
मौजूद अपने नूर के साथ
और ना जाने किस-किस कण में
पाओगी तुम तस्वीर उसकी !
खुशकिस्मती ना समझना तुम इसे
उस नायाब मायूस चहरे कि
मैं माँग लूँगा दुआएं उस चहरे के लिए
जिसे देखने के लिए तस्वीर अपनी
नसीब ना हुआ कोई दर्पण !
फिर, मैं ही आऊंगा
और आता ही रहूंगा
उस राह, सड़क, मोड़, चौराहे पर
तुम वहाँ रहो, ना रहो
तेरी हर छाप कमोबेश तो वहाँ
तेरे 'होने' का मुझे
सुखद भरम दिलायेगी
और मेरा दीवाना मन
चूम लेगा उस धूल कण को ही
पडे होंगे तेरे पैर जिस पर
इक अनजान बेरहमी के साथ !
मान लूँगा तब मैं
कि तुम रहो, ना रहो
तेरी मौजूदगी हमेशा
मेरे पहलू में सिमटी है-
यही इक उम्मीद मन को सुकून देगी
क्योंकि प्यार तो तुम्हारा
बँट गया जाने कहाँ-कहाँ !
- "प्रसून"
1 comment:
bahut khoob prsoon. bahut hi bhaavpoorn likhte ho dost....
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