Wednesday 1 August 2007

Ghazal

तेरी यादों में जीना,तेरी यादों में मरना,अब ऐसा कोई गुनाह ना हो !
सोचता हूँ, ज़र्ज़र जिन्दगी में इश्क की कोई राह ना हो !!

मेरा मर-मरकर तेरे गेशुओं के घने साए में जीना

बीमार मेरे दिल को अब ऐसी कोई चाह ना हो !

फिराक को ही देखा है हमने तेरी मुहब्बत में रहके

अब इन कातिल बाजुओं की कोई पनाह ना दो !

मिन्नतें करो "प्रसून" मुहब्बत में सबको वफ़ा मिले
राह-ए-इश्क में दीगर हम- सा कोई गुमराह ना हो !


- "प्रसून"

1 comment:

Anonymous said...

this one is too gud