Monday, 10 September 2007

जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो


लगता है, जैसे पूरी फ़िज़ा मचलती हो
जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो।


किसी की मुस्कराहट का तू बहाना है अब तक
क्या इतना भी तूने ना जाना है अब तक !
तेरी हँसी से होता है किसी की हँसी का फ़ैसला
तेरी नाराज़ नज़रों से उसका गिरता है हौसला ।


डर-सा जाता है रह- रहकर बेचारा
कभी प्यार बाँटने में जो तुम सोचती- संभलती हो,
जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो ।


तेरा आना- जाना सच में, हवाओं का झोंका है
फिर हवाओं को किसी ने कब तक रोका है !
तू रोज़ मिलेगी, किसी को ख़ूब है ये आस
बैठा है जबकि कोई कब से बेहोश- बदहवास !


आ जाओ पास, प्यार कितना छलकता है
मुस्करा कर भी बगल से कभी जो गुज़रती हो,
जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो।


कोई तन्हाई में तेरे बिना रहे तो कैसे
अपनी बेबसी अपनी आहों से कहे तो कैसे !
किसी की आह की खामोश आवाज़ हो तुम
उसके हर बयान का मुखर अंदाज़ हो तुम ।


मानो, ना मानो, किसी का आगाज़- अंजाम हो
फिर किसी के लिए ख़ुद को इतना क्यूँ बदलती हो,

जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो ।



- "प्रसून"

3 comments:

Shastri JC Philip said...

"लगता है, जैसे पूरी फ़िज़ा मचलती हो
जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो।"

जीवन के कई पहलुओं को स्पर्श करती है आपकी अभिव्यक्ति -- शास्त्री जे सी फिलिप



आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)

रंजू भाटिया said...

मानो, ना मानो, किसी का आगाज़- अंजाम हो
फिर किसी के लिए ख़ुद को इतना क्यूँ बदलती हो,
जब तुम अपनी अदाओं में अकड़ती हो ।

वाह!! बहुत ख़ूब ...बहुत सुंदर लिखा है आपने ...

Unknown said...

तेरी हँसी से होता है किसी की हँसी का फ़ैसला

तेरी नाराज़ नज़रों से उसका गिरता है हौसला ।


outstanding piece of work.
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