बादल को बरसते देखा है।
कब हँसती आँखों ने विरहा गाया है
कब कुदरत ने अपना एहसान जताया है
आनी- जानी सब भरम है जीवन का,
कब सिसकी ने शोर मचाया है !
क्यों कर बिगड़ जाते हैं लोग,
वाणी संग हो जब चुप्पी का योग !
आह भी हो जाती है और ही अनोखी
शर्म से छिपकर जब उसे संवरते देखा है,
अम्बर में लरजते देखा है,
बादल को बरसते देखा है।
कब धूप ने अपना धाक जमाया है
कब मेघों ने पल- पल नीर बहाया है
अपने- अपने समय में हैं सब बेबस,
कब निशा का रह जाता घना साया है !
क्यों धरा- बोझ हम लेने लग जाते हैं,
झूठी हँसी हँसकर सुख- मग को जाते हैं !
'रोना' तो बन गया है बस अनुभव ऐ दोस्त !
आँसू को जब से बरखा संग बिखरते देखा है,
अम्बर में लरजते देखा है,
बादल को बरसते देखा है।
कब किसी जननी ने ज़हर पिलाया है
कब मनुज ने किसी का चरित्र बनाया है
सब तारतम्य है अदभुत- अनहोनी का,
सबने अपना- अपना कर्ज़ चुकाया है !
क्यों ना थम जाता है दुःख- दरिया,
अश्रु से क्यों भर जाती है नदिया !
समुच्चय है ये जीवन उथल- पुथल का
दर्द को भी फूलों- सा गिरकर पसरते देखा है,
अम्बर में लरजते देखा है,
बादल को बरसते देखा है।
- "प्रसून"
1 comment:
आज अकारण अश्रु हो रहे प्रवाहित,
देखता हूं शरत के ये खेत पुष्प पूरित,
तो निकलती है आह गहराईयों से,
पूरित हो जाते है नयन आंसुओं से।।
लिखते रहें. आप की लेखनी हृदयस्पर्शी है -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!
Post a Comment