Friday 14 September 2007

ग़ज़ल

चाहेगा कोई क्यों कमसिन को निखर जाने के बाद ।
सपने जो बनते हैं हक़ीक़त अकसर बिखर जाने के बाद ।।

इस बेज़ार रहगुज़र का शायद ही कोई मुकम्मल ठिकाना हो
ख़याल आता है ऐसा बरवक़्त इस पर से गुज़र जाने के बाद ।

ये मुहब्बत का नायाब तोहफ़ा है हम दीवानों को
दर्द- ए- दिल ही बना अन्दर ये ज़हर जाने के बाद ।

ना आ सकी मौत भी बेबसी में, जब- जब उसे पुकारा
कुछ दवाएँ- दुआएँ ज़रूर आयीं असर जाने के बाद ।

अपनी उल्फ़त से बाख़बर थी मुहब्बत की हर गली
इक आह भी न निकली वहाँ से, ख़बर जाने के बाद ।

जीते- जी तो भटकता ही रहा किसी साथी की तलाश में
दोस्त मेरे बहुत आये, मेरे मर जाने के बाद ।


- "प्रसून"

2 comments:

रंजू भाटिया said...

किया था इकारार हमने जब प्यार का
तब वो समझ बेठे दिल्लगी हमारी
आज वक्त ने जब दिखाया आईना
तब हाथ मलते रह गए सब कुछ लुट जाने के बाद !!

बहुत सुंदर लिखा है आपने ...कुछ यूं ही दिल में आया तो लिख दिया :)

pragati haldar said...

मैंने तो उस शख्स से मोहब्बत की जो रोज़ मेरे ख्वाबों में आता था...
एक दिन बिछड़ गए हम सुबह सुबह , नज़र खुलने के बाद .

आप बेहद दिलकश लिखते हैं..प्रसून !