Thursday, 24 January 2008

ग़ज़ल


अभी वो कमसिन है, अभी उसका उभरना है बाक़ी।
थोड़ा निखार आया है उसपे, थोड़ा और निखरना है बाक़ी॥

राह-ए-इश्क़ की ठोकरें वो सुनता आया है ज़माने से
इस बेज़ार रहगुज़र पे दिल उसका मचलना है बाक़ी।

माना कि कम है ये ज़िन्दगी मुहब्बत की खातिर
तूफाँ-ए-प्यार के लिए इक चिंगारी का निकलना है बाक़ी ।

जाने क्यूँ ढूँढते हैं चराग लेकर अपनी मुहब्बत को
गम-ए-इश्क़ में दिल के टुकड़ों का बिखरना है बाक़ी।

कल महफ़िल में बेहिसाब पी ली सोहबत के नाते
आज किसी फ़रमाइश पर 'प्रसून' संभलना है बाक़ी।


- "प्रसून"

3 comments:

रंजू भाटिया said...

अभी तुम्हारा लिखा पढ़ा ..अच्छा नही..... बहुत अच्छा लिखते हैं आप ..कई कई रचनाओं ने ख़ुद में डुबो दिया
बधाई अच्छी सोच और अच्छे भावो को कविता में ढालने के लिए !!

अमिय प्रसून मल्लिक said...

thank you,Ranjoo jee for your appreciation!

Harshit Gupta said...

beautiful.. keep up the good work..