Thursday 2 August 2007

कोई शिक़ायत नहीं

ख़ून-ए-जिगर का हर कतरा
बिखर गया हथेली पर
खामोश मेरी आँखें
पथरा-सी गयीं
चिलमन तेरी यादों के
बन गए झरोखा
मेरी हर सांस
हो गयी ठण्डी
आती ही रही हरदम
अनपची यादों की बदबूदार डकार
उड़ चुकी हैं नींदें
सोया नहीं ज़माने से
आँखें हैं कितनी लाल
मैं नहीं जानता
मुट्ठियों का भींचना

अब केवल याद ही आता है
मिल नहीं अर्से से
कोई गर्म बिछावन
फिर भी तुमसे मुझको
नहीं कोई शिक़ायत
मैं तो आशिकी के
झेल रह हूँ दंश
क्या तुम्हे नहीं रह

इक ज़रा -सा ख़याल
कि तुम्हारा कोई अपना(?)
शायद बीमार भी हो !
तुम जानती थी
अच्छी तरह खेलना
कच्चा खिलाडी तो
मैं ही निकल गया...!

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