Friday 24 August 2007

ग़ज़ल


इंसानों के मकाँ वहाँ बहुत हैं !
जहाँ रहने को इन्साँ बहुत हैं !!


तार- तार हो जायेंगे यहाँ पंख हमारे
उड़ने को दूसरे आसमाँ बहुत हैं !


जिन्होंने पाए थे ख़ुशी के चांद लम्हे
आजकल अपनों से वे परेशाँ बहुत हैं !


खोज रहे थे खुसूसियत का नगमा
पर खाक छानते तक हैराँ बहुत हैं !


छल- प्रपंच, झूठ- फरेब, जाति- धर्म
ऐसे ही 'संभ्रात' विचार यहाँ बहुत हैं !


'प्रसून' नहीं मिलेगा यहाँ यूं ही करार
क्योंकि इंतज़ार के इम्तहाँ बहुत हैं !



- "प्रसून"

1 comment:

रंजू भाटिया said...

जिन्होंने पाए थे ख़ुशी के चांद लम्हे
आजकल अपनों से वे परेशाँ बहुत हैं !

बहुत खूब ..ब्लॉग का रंग आंखो में चुभता है थोड़ा इसे हल्का करे :)

बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ
रंजना [रंजू]