Monday 1 October 2007

ग़ज़ल


अपनों की करनेवाली इबादत नहीं मिलती !
वैसे भी अब ऐसी शराफ़त नहीं मिलती !!


कुछ करने की सोचें कैसे उनकी खातिर
बेगम से ऐसी इजाज़त नहीं मिलती !


फ़ीकी हँसी दिखाकर याद कर लेते हैं बचपन
बचपन में जो की, शरारत नहीं मिलती !


उन दिनों होते रहे थे कितने ही गिले- शिकवे
अब करने के लिए कोई शिकायत नहीं मिलती !


रिश्तेदारी से बचके पहुँचे हैं इस मकाम पे
जहाँ चादर- ए- प्यार की हिफाज़त नहीं मिलती !


सिमट गए 'प्रसून' अपने बीवी- बच्चों तक यूँ
कि अपनी छत तक सलामत नहीं मिलती !




- "प्रसून"

4 comments:

Amit K Sagar said...

Mallik
Bahut Hi Behatareen Hai
behatareen
mauzun alfaaz nahin hai mere paas
vyakt karne ke liye
it's super super realy
keep it up
~!~amit k. sagar~!~

डाॅ रामजी गिरि said...

फ़ीकी हँसी दिखाकर याद कर लेते हैं बचपन

बचपन में जो की, शरारत नहीं मिलती !

बहुत ही सरल तरीके से आपने हाकीकत -बयानी की है. बहुत खूब.

अमिय प्रसून मल्लिक said...

thanx for your comment here everybody!

रश्मि प्रभा... said...

हर ग़ज़ल अपने-आप में ज़बरदस्त है,पर.......

अपनों की करनेवाली इबादत नहीं मिलती !
वैसे भी अब ऐसी शराफ़त नहीं मिलती !!............बहुत बढ़िया